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मार्कण्डेय जी की चुनी हुई 10 कहानियों का संकलन...
प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश
शव-साधना
घूरे बाबा ने साफी को कमंडल से पानी गिरा कर भिंगोया, फिर उसे निचोड़ कर
झटकारा और बायें हाथ की हथेली पर फैला कर अपनी कमरी पर आ बैठे।
घेंचू कंडे की आग को अभी मुँह से धधका ही रहा था कि बाबा जोर से खाँस कर चिल्ला पड़े, ‘बम् भोले !’ आवाज दूर-दूर तक आसमान को छूकर झर पड़ी। पास की बस्ती में कुत्ते झाँव-झाँव-आँवऽ....करके एक स्वर में रोने लगे और चिक् किच्...किरर्..की आवाज करता हुआ चिड़ियों का एक झुंड झरबेरी में हुर्र् से उड़ा और फिर लौट कर वहीं आ बैठा।
रात का तीसरा पहर।
माघ-पूस की ठारी और चुड़इनियाँ के भींट की झरबेरी के घने, काले झाड़।
बाबा इसी में एक दिन चरवाहों को समाधिस्थ मिले थे और उनके इस विस्मय-जनक अवसरण की बात आग की तरह चारों ओर फैल गयी थी।
‘भगवान का रूप ही समझो, बाबा को !’ घेंचू रोज लौट कर सुखी से कहता और बिना कुछ खाये-पिये खटिया में धँस जाता।
सुखी को पता है कि बाबा लोगों के घरों से आये मोहनभोग और दूध के कटोरे अपने चेलों को देकर कभी-कभी धूनी की राख ही घोल कर पी लेते हैं। उसका आदमी लंगोटी फींचता है बाबा की। उसे सिद्धि मिल जाएगी, कुछ दिनों में। पर अभी सिद्धि, इसी उमिर में ! साल ही भर तो हुए मेरे गवने के और अभी न लड़का, न बच्चा। साधू-संन्यासी की सोहबत बहुत अच्छी नहीं, जाने क्या मारन-मोहन कर दें, सुखी को चिन्ता हो आयी।
बाबा ने कंकड़ की नन्ही चिलम को हाथ की अँगुलियों और होंठों में लपेट कर ऐसा खींचा कि कंकड़ दीये की लौ की तरह जल उठा। फिर झुँझलाये-से सँड़से को उठाकर उन्होंने धूनी में दो बार मारा और आसन से एक कमरी उठा कर पीठ पर डाल ली। शरीर शीत से गनगना रहा था। कंकड़ की गरमी आज जैसे माथे से उतर ही नहीं रही थी। झबरा धूनी से सटा घेंचू के पैरों के पास मुँह किये ऊँघ रहा था। बाबा इधर-उधर मेल्हते रहे, फिर सँड़से को उठा कर धूनी की आग में डाल दिया। जब सँड़सा लाल हो गया, तो उन्होंने उसे उठाया और अपनी पिंडलियों के रोएँ जलाने लगे। फिर एकाएक चीख पड़े ‘बम् भोले ! बम् भोले !’ पर घेंचू जैसे मिनका ही नहीं और झबरा आँखें मुलमुला कर रह गया। बाबा ने चिमटे को ऊपर ताना और कस कर झबरा की पीठ पर मारा। उधर कुत्ता पेंऽ-पेंऽ करता भागा और इधर बाबा पद्मासन लगा कर अकड़ गये। घेंचू हाथ जोड़ कर, ’ महाराज-महाराज’ कहता हुआ काँपने लगा।
‘सेवक से कोई खता हो गई भगवन ?’
‘बालक, मन में कहीं चोर है तेरे ! तन तो तूने साहब को दे दिया, पर मन तिरिया में बसा है तेरा...तिरिया विनाश का घर है। माया से अब छुट्टी ले घेंचू, नहीं तो अब तू साहब का है, उसके दरबार में आना आसान है, पर जाना मुश्किल !’ बाबा बोलते जा रहे हैं, पर घेंचू की आवाज बन्द हो गयी है। गरम सँड़से में कुत्ते की चमड़ी उचक आयी है और अब धूनी की धधकती आग में जल कर बदबू कर रही है। बाबा का राख में लिपटा नंगा शरीर ठूँठ की तरह धरती में गड़ा है। हर क्षण वह कड़ा पड़ता जा रहा है। लोहे की सख्त ठनक-सी उनकी बात धरती को फोड़कर निकलती-सी लगती है। घेंचू की दुनिया कुम्हार की चाक की तरह तेज़ चक्कर काट रही है।
‘यह मैं नहीं बोल रहा, मैं नहीं....!’ बाबा नेवले की तरह गर्दन निकालते हैं और विस्फारित नेत्रों से घेंचू की ओर देखकर कहते हैं, ‘वह चुड़ैल, डाइन, कलंकिनी, कुलच्छिनी, कुलटा.....’ क्षण भर को वह एका-एक रुकते हैं, पर आँखें एकटक घेंचू की आँखों में गड़ी हैं। फिर कुछ और जोर से तड़क कर बोलते हैं, ‘ले यह आग का अँगीठा अपनी मुट्टी में !’
घेंचू की हथेली आग से सट जाती है, अजीब-सी बदबू, पर घेंचू टस-से-मस नहीं होता।
‘सात समुन्दर पार साहब के देश में तेरा महल बन गया। बोल सत्त गुरु की !’’
‘‘सत्त गुरु की !’
‘‘इतने धीरे से बोलता है ?’ और एक गरम सँड़सा उसकी पीठ पर चिपक गया। घेंचू चिल्ला पड़ा।
‘सत्त गुरु की, महाराज ? सत्त गुरु की !’
‘तूने मेरे कहने पर तिरिया का त्याग तो कर दिया, पर वह साहब की है, उसे साहब को दे दो ! धरोहर साधू कभी नहीं धरता। पर साहब भी क्यों लेगा उसे, साहब भी....।’ बाबा चीख उठे, ‘वह इस समय उस वनमानुस गड़रिये के साथ सो रही है !’
‘सच महाराज ?’ घेंचू जैसे होश खोता जा रहा था।
‘और नहीं तो क्या झूठ बोलेगा, साधू ? यह दिव्य-दृष्टि सब देख रही, चल-अचल, सब। देख-देख, वह दोनों गुलछर्रे उड़ा रहे हैं, हा-हा-हा-ऽऽऽ!’ बाबा की अँगुलियाँ संकेत के लिए उठी रहीं और घेंचू की आँखें अँधेरे चट्टान से टक्कर मारती रहीं। तभी बाबा ने धूनी से सँड़सा निकाल घेंचू के हाथ में थमाते हुए कहा, ‘ले इसे, बालक !’ उनकी आवाज बढ़ती जा रही थी, ‘यह साहब का हथियार है। उसकी पीठ पर इससे एक दाग बना कर उसी के हाथ साहब का दंड वापस कर और वहाँ बैठ कर उसके लौटने का इन्तज़ार कर। परम अवसाद तेरे पास पहुँच जाएगा। यह धूनी उसके पापों को जला कर छार कर देगी। इस अँधेरे पर साहब की सवारी है, घेंचू !’
घेंचू अगियाबैताल की तरह अँधेरे में खो गया। घूरे बाबा ने गरदन इधर-उधर झटकारी। हाथों को ढीला किया और कमर में बँधी मूँज की मोटी रस्सी की हुण्डीदार गाँठ खोल दी।
घूरे बाबा की धूनी बुझ गयी,—दूसरे दिन सुबह गाँववालों के मुँह पर यही बात थी।
-शरम की बात है हमारे गाँव के लिए। हम लोग कल लकड़ी नहीं जुटा सके।
बाबा कहते हैं, ‘कोई राज-विग्रह होगा या महामारी फैलेगी। तेज की अगिन कैसे बुझ गयी ? तुम लोग नादान हो, जो लकड़ी की कमी की बात सोच कर पछता रहे हो। इस धूनी में तो माटी जलती है, हवा जलती है, आकाश जलता है, पाँचों तत्त्व जलते हैं, जिसे यह गुरु का सँड़सा छू दे, वही जल कर छार हो जाता है।’ घूरे बाबा घूर कर महिला दर्शनार्थियों की ओर देखते हैं।
....पुत्र की कामना...! बुझी हुई, भारी-भारी-सी, भूखी....
....पति की कामना !....चपल, लोलुप, पियासी....
...धन की कामना !.....उदास, रसहीन, मुर्दा....
...रोग मुक्ति की कामना !....बीमार पीली-पीली....
बाबा उखड़ जाते हैं। पद्मासन को और भी चुस्त बना लेते हैं और अपनी नाभि पर दृष्टि जमा, सुन्न हो जाते हैं। सब लोग हाथ जोड़ लेते हैं।–गये समाधि में बाबा !
प्रायः ऐसा ही होता है। बाबा बोलते-बोलते चुप हो जाते हैं। धीरे-धीरे झरबेरी का वह अद्भुत निकुंज सूना हो जाता है। बस, सँड़से के दाग से पीठ पर लाल-लाल, लम्बी पट्टी की तरह का घाव लिये झबरा और हाथों में साधु की धूनी का प्रसाद सँभाले घेचूँ : गदोरियाँ फूल कर गुब्बारा हो रही हैं। गहरे बुखार में शरीर झुलस रहा है, जैसे जड़ काट कर कोई हरा-भरा पेड़ जमीन में गाड़ दिया गया हो और सूरज की तेज रोशनी में उसकी पत्तियाँ, कोमल टहनियाँ मुरझा कर लटक गयी हों। साधू इसी को कहते हैं, जब वह ठूँठ की तरह सूख जाए, धरती से रस-ग्रहण करना बन्द कर दे।
कल ही सुबह बाबा ने सुखी को पहली बार देखा था—काली भुजंग, बड़ी-बड़ी आँखोंवाली, सलोनी तिरिया, छरहरा, धनुष की तरह लचीला बदन, साँप की तरह चिकनाई....और वह क्या नहीं देख सकते थे, घूरे बाबा ठहरे, कोई मामूली साधू संन्यासी तो नहीं। उनके जलते हुए अंतर में सुखी के मोहक रूप और नसीली आँखों ने आग का सूजा घुसेड़ दिया था।
बाबा दिन-भर बेचैन रहे। उनके सीने में असंख्य चीटियाँ काट रही थीं और बार-बार उन्हें अपने गुरु का ध्यान हो आता था, साधु के लिए कुछ असम्भव नहीं। वह जो चाहे कर सकता है।
घूरे बाबा का प्रयोग भी सफल हुआ।
घेंचू कल रात भूत की तरह दौड़ता घर पहुँचा था। सुखी चौखट से उठँगी, पैर फैलाये, मोहनी की तरह मदन के लिए जाग रही थी।
हवा के सर्द झोंके सुखी के सीने में आज गुदगुदी पैदा कर जाते थे, इसलिए पुवाल की गर्मी में सोकर वह आज की रात भी खोना नहीं चाहती थी। बाबा के यहाँ कल सुबह पहली बार गयी थी। पुत्र भी बाबा की कृपा से मिल सकता है। पूरे चार महीने का बदला वह आज लेती घेंचू से, संन्यासी की सोहबत आज उसे खल रही थी, लेकिन सहसा इस बालक संन्यासी के हाथ में सँड़सा देख कर वह चौंक पड़ी। काली मकोय-सी पुतलियाँ आँखों की विस्तृत सफेदी में नाच उठी थीं ! क्षण-भर घेचूं सहमा था....पर सात समुन्दर पार साहब के देश में तुम्हारा महल बन गया...देख, देख, वह गुलछर्रे उड़ा रही है...और सामने बैठी सुखी के बाल घेंचू की मुट्ठियों में आ गये थे, पर निशान तो उसे...
धूनी की आग ही नहीं, कंकड़ की चिलम भी ठंडी पड़ गयी थी उस रात। बाबा का रोम-रोम गरमाई से टहक गया था। नस, नस में चिपक गयी थी। पाप जल कर छार हो गये थे।
आज घेंचू मन मारे बैठा है। लोगों के उठ कर जाते ही बाबा का ध्यान भंग हो गया और वह कंकड़ की चिलम अपने हाथ ही से खुरचने लगे हैं।
‘खालिस गांजा कभी पिया है, घेंचू ? रात-रात भर भजन के लिए तपसी सूखा गाँजा पीते हैं।’
‘नहीं, किरपानिधान !’
‘तो आज पियो। धोकर बनाता हूँ गाँजे को।’
‘अपने हाथ से, प्रभु ! लोक में हँसी होगी !’
बाबा हँसे, ‘लोक में ?....साधू का कोई लोक नहीं होता।’ और थैली से गाँजे का चिप्पड़ निकाल कर हथेली पर मलने लगे।
‘तेरी तो गदोरी ही ले ली साहब ने, लेकिन वह बहुत कुछ देगा इसके बदले, घेंचू, बहुत कुछ। सुदामा के दो मुट्ठी चावल खाकर।....बाबा ने चिलम भर ली और दो बार हवा में झुला कर घेंचू के आगे करते हुए कहा, ‘तू ही लगा भोग ! अब थोड़ी ही कसर है तेरे जती होने में !’
‘नहीं महाराज, हम तो चरन-सेवक हैं !’ घेंचू के होंठ सूख रहे थे और बुखार की ज्वाला में सारा शरीर तप रहा था।
सूरज की रोशनी झरबेरी की छत पर पसरी हुई थी और कहीं-कहीं किरणें निकुंज को बेध रही थीं। झबरा अपनी दोनों टाँगों पर गरदन फैलाये बाबा का मुँह ताक रहा था। घेंचू की दृष्टि रह रह कर उसकी पीठ के उचरे हुए चमड़े पर टिक जाती थी और सुखी को बड़ी-बड़ी आँखों का दुख, क्रोध और विस्मय-भरा-निश्चय...वह अपने मन को दबाकर गाँजे की चिलम हाथ में लेता है, लेकिन मुट्ठी बँधे तब न ! एक हाथ से चिलम पकड़ के हलकी-सी फूँक देता है और चिलम बाबा को फेर देता है। बाबा सुर्र् करके खींचते हैं। चिलम उलटते हैं, गाँजा रखते हैं, फिर खींचते हैं—लगातार चार चिलम ! फेर घेंचू की हथेली अपने हाथों में लेकर फटी-फटी आँखों से देखते रह जाते हैं। सहसा सुखी का चेहरा उन्हीं हथेलियों में उग आता है और उनका सारा शरीर तमतमा कर अकड़ जाता है। लगता है, कमर में बँधी मूँज की रस्सी तड़तड़ा कर टूट जाएगी।–नारी भोग है !...उन्हें अपने गुरु का ध्यान हो आता है और वह उत्फुल होकर चीखने लगते हैं, ‘सत्त गुरु की, घेंचू ! सत्त गुरु की....!’
घेंचू किसी तरह अपने पपड़ियाहे होंठ खोलता है, ‘‘सत्त गुरु की....!’
‘आज गढ़ी की बारी है, न घेंचू ?’ बाबा पहली बार खाने की बात पूछते हैं, ‘अच्छा भोग आता है उनके यहाँ से। रतनजोत आती ही होगी नौकरों के साथ !’
‘हाँ, महाराज, बड़े पुण्यात्मा हैं, मालिक !’
‘मालिक कहता है बुद्धू, जती हो कर ? मालिक तो अब तू है, तू !’ बाबा की अँगुलियाँ अब घेंचू के मुँह के पास पहुँच गयी हैं। तू चाहे तो रतनजोत तरी दासी बन जाए, दासी !’
‘क्या कहते हैं, प्रभु !’
‘सच कहता हूँ, बुद्धू ! तिरिया और भूँय पौरुख की हैं, पौरुख की !’
बाबा और कुछ कहते-कहते रुक जाते हैं, उन्हें अपनी ही ही बीबी का खयाल हो आया है।–साहब किस तरह उसे आफिस भेज कर खुद बँगले ही में रुक जाया करते थे और बार-बार दौरे पर जाने वाले लोगों के साथ उसे भेज दिया करते थे। वह तो उस दिन गाड़ी छूट जाने के कारण घर लौटा, तो कोठरी में ताला बंद। दूसरे दिन उसे जान से खत्म करा देने की तैयारी, अपनी ही बीवी की सलाह से। लेकिन वाह रे घूरे बाबा ! उनके चेहरे पर प्रतिहिंसा की धूप छिकट आयी है। रतनजोत तुम्हें कलेवा लेकर आती है। बड़े-बड़े घर की तिरिया तुम्हारे तलवे धूल पोंछ कर संतान की भीख माँगती हैं।–बाबा इधर-उधर देखते हैं। अभी रात की तेल गरम करने वाली कटोरी धूनी के पास ही पड़ी है। और गर्व पुलकित सँड़सा लकड़ी की एक गाँठ के सहारे सीना ताने ऊठँघा है। बाबा रात उसे तोड़ फेंक देना चाहते थे....पर सुखी ?
--अहो भाग्य महाराज, दासी की अरज है यह !
बाबा सँड़से को उठाकर लकड़ी की झँवाई गाँठ को ठोकने लगे। आग की झुर्रियाँ छूटने लगीं और एक से दूसरी, तीसरी बनती गयीं। घेंचू आँख उठाकर ऊपर देखता है, बेल की पत्तियाँ झुलस चली हैं और हवा के चलने से कभी-कभी टूट कर गिर पड़ती हैं।
घूरे बाबा का यह अनोखा मठ लोक-प्रसिद्ध है। उनके महातम की कहानियाँ कही जाती हैं और एक नहीं पचीसों उन कहानियों के चश्मदीद गवाह मिल जाते हैं, जो हर बात को अपने ही आगे हुई बताते हैं।
बाबा रात की चुड़इनियों के तालाब के ऊपर पलत्थी मार कर बैठ जाते हैं और डाइनें उनके पाँव पखारती हैं। नहीं तो थी किसी की हिम्मत उधर झाँकने की रात को ! गढ़ी का छोकरा घोड़ा समेत वहीं डर कर मर गया। डाइनें उसके कलेजे का खून चूसकर पी गयीं। अब तो रतन-जोत रात-बिरात नौकरों को ले कर बाबा का भोग लगाने पहुँच जाती है।
सुखी रात मठिया में होती है और औरत भक्तों को साधारण मनाही कब रोक सकी है ! बाबा को विघ्न का डर है, इसलिए उन्होंने अपने तेज की वृद्धि के लिए शव-साधना की भयानक क्रिया प्रारम्भ कर ली है।
बाबा आज-कल शव-साधना कर रहे हैं। रोज रात मर्दहवा घाट जा, मुर्दे की लाश पकड़ कर मन्त्र का जाप करते हैं। दारू से नहाते हैं। मुर्दे के मांस का भक्षण करते हैं। रात को भक्त मठिया पर नहीं जाते।
सवेरे कभी आदमी की खोपड़ी, कभी हाथ-पाँव की सूखी हड्डी झरबेरी के एक कोने में पड़ी मिलती है। लोग दंग ! इस त्रिकालदर्शी बाबा का एक वाक्य कुछ-कुछ कर सकता है। बड़े-बड़े ठाकुरों के नौजवान लड़के पेड़ की मोटी-मोटी सिल्लियाँ जोरई से ढोते हैं। बड़े घरों की स्त्रियाँ बाबा की एक बात के लिए, उनके चरणों की एक धूल कण के लिये तरसती रहती हैं। दूर-दूर के लँगड़े-लूले अपाहिज आते हैं और बाबा की धूनी की खाक से चंगे होकर लौट जाते हैं। सूरज डूबते ही डाकिनी का आह्वान होता है और घेंचू आसमान की ओर मुँह उठा जोर से तुरही फूँकता है। लोग सन्न हो जाते हैं। डर के मारे औरतें काँपती, अपने बच्चों के लिए ईश्वर से प्रार्थना करती हैं।
--अब कोई सिवान में कदम नहीं रखेगा। मठिया में प्रेत-साधना करते हैं, बाबा ! नहीं तो इतना जस कैसे रहे ! रात को बस बम् भोले...बम् भोले...सत गुरु की, आवाज सुनाई पड़ती है।
सुखी निखर आयी है। कमर की हड्डियाँ थोड़ी चौड़ी-चौड़ी हो गयी हैं। आँखों के नीचे का अस्थि-भाग चिकना हो गया है।
समय के खेल में आदमी कैसा बदल जाता है। सुखी थोड़ा झुककर चलती है। मदिरा का भभका चलता है, उसके घर। खाने-पीने की क्या चिन्ता। दूध से मलाई छान कर नीचे का दूध बाबा के आगे डाल देती है और बचा-खुचा हलुआ घेंचू और कुत्ते को। बाबा उससे डरते हैं। स्त्रियों को भभूत देते हुए, सुखी पर निगाह पड़ते ही उनका हाथ काँपने लगता है, पसीना छूटने लगता है।
साहब का चिमटा अब घेंचू के हाथ में रहता है। भोग की थाली अब वही ग्रहण करता है। ऐरे-गैरे रोगियों को अब घेंचू के हाथ की भभूत ही चंगा कर देती है। बस, विश्वास नहीं है तो एक रतनजोत को उस पर और घूरे बाबा यही चाहते हैं कि सुखी बाबा और घेंचू दोनों को खूब जान गयी है।
झरबेरी के पत्ते पीले होकर गिर गये हैं। बस, डालें और नुकीली टहनियाँ, जिनमें काँटे। चाहे फिर नयी पत्तियाँ आएँ और यह दैवी गुंबद ढँक जाए उनसे, पर अभी तो इसकी चुभन बनी हुई है।
घेंचू कंडे की आग को अभी मुँह से धधका ही रहा था कि बाबा जोर से खाँस कर चिल्ला पड़े, ‘बम् भोले !’ आवाज दूर-दूर तक आसमान को छूकर झर पड़ी। पास की बस्ती में कुत्ते झाँव-झाँव-आँवऽ....करके एक स्वर में रोने लगे और चिक् किच्...किरर्..की आवाज करता हुआ चिड़ियों का एक झुंड झरबेरी में हुर्र् से उड़ा और फिर लौट कर वहीं आ बैठा।
रात का तीसरा पहर।
माघ-पूस की ठारी और चुड़इनियाँ के भींट की झरबेरी के घने, काले झाड़।
बाबा इसी में एक दिन चरवाहों को समाधिस्थ मिले थे और उनके इस विस्मय-जनक अवसरण की बात आग की तरह चारों ओर फैल गयी थी।
‘भगवान का रूप ही समझो, बाबा को !’ घेंचू रोज लौट कर सुखी से कहता और बिना कुछ खाये-पिये खटिया में धँस जाता।
सुखी को पता है कि बाबा लोगों के घरों से आये मोहनभोग और दूध के कटोरे अपने चेलों को देकर कभी-कभी धूनी की राख ही घोल कर पी लेते हैं। उसका आदमी लंगोटी फींचता है बाबा की। उसे सिद्धि मिल जाएगी, कुछ दिनों में। पर अभी सिद्धि, इसी उमिर में ! साल ही भर तो हुए मेरे गवने के और अभी न लड़का, न बच्चा। साधू-संन्यासी की सोहबत बहुत अच्छी नहीं, जाने क्या मारन-मोहन कर दें, सुखी को चिन्ता हो आयी।
बाबा ने कंकड़ की नन्ही चिलम को हाथ की अँगुलियों और होंठों में लपेट कर ऐसा खींचा कि कंकड़ दीये की लौ की तरह जल उठा। फिर झुँझलाये-से सँड़से को उठाकर उन्होंने धूनी में दो बार मारा और आसन से एक कमरी उठा कर पीठ पर डाल ली। शरीर शीत से गनगना रहा था। कंकड़ की गरमी आज जैसे माथे से उतर ही नहीं रही थी। झबरा धूनी से सटा घेंचू के पैरों के पास मुँह किये ऊँघ रहा था। बाबा इधर-उधर मेल्हते रहे, फिर सँड़से को उठा कर धूनी की आग में डाल दिया। जब सँड़सा लाल हो गया, तो उन्होंने उसे उठाया और अपनी पिंडलियों के रोएँ जलाने लगे। फिर एकाएक चीख पड़े ‘बम् भोले ! बम् भोले !’ पर घेंचू जैसे मिनका ही नहीं और झबरा आँखें मुलमुला कर रह गया। बाबा ने चिमटे को ऊपर ताना और कस कर झबरा की पीठ पर मारा। उधर कुत्ता पेंऽ-पेंऽ करता भागा और इधर बाबा पद्मासन लगा कर अकड़ गये। घेंचू हाथ जोड़ कर, ’ महाराज-महाराज’ कहता हुआ काँपने लगा।
‘सेवक से कोई खता हो गई भगवन ?’
‘बालक, मन में कहीं चोर है तेरे ! तन तो तूने साहब को दे दिया, पर मन तिरिया में बसा है तेरा...तिरिया विनाश का घर है। माया से अब छुट्टी ले घेंचू, नहीं तो अब तू साहब का है, उसके दरबार में आना आसान है, पर जाना मुश्किल !’ बाबा बोलते जा रहे हैं, पर घेंचू की आवाज बन्द हो गयी है। गरम सँड़से में कुत्ते की चमड़ी उचक आयी है और अब धूनी की धधकती आग में जल कर बदबू कर रही है। बाबा का राख में लिपटा नंगा शरीर ठूँठ की तरह धरती में गड़ा है। हर क्षण वह कड़ा पड़ता जा रहा है। लोहे की सख्त ठनक-सी उनकी बात धरती को फोड़कर निकलती-सी लगती है। घेंचू की दुनिया कुम्हार की चाक की तरह तेज़ चक्कर काट रही है।
‘यह मैं नहीं बोल रहा, मैं नहीं....!’ बाबा नेवले की तरह गर्दन निकालते हैं और विस्फारित नेत्रों से घेंचू की ओर देखकर कहते हैं, ‘वह चुड़ैल, डाइन, कलंकिनी, कुलच्छिनी, कुलटा.....’ क्षण भर को वह एका-एक रुकते हैं, पर आँखें एकटक घेंचू की आँखों में गड़ी हैं। फिर कुछ और जोर से तड़क कर बोलते हैं, ‘ले यह आग का अँगीठा अपनी मुट्टी में !’
घेंचू की हथेली आग से सट जाती है, अजीब-सी बदबू, पर घेंचू टस-से-मस नहीं होता।
‘सात समुन्दर पार साहब के देश में तेरा महल बन गया। बोल सत्त गुरु की !’’
‘‘सत्त गुरु की !’
‘‘इतने धीरे से बोलता है ?’ और एक गरम सँड़सा उसकी पीठ पर चिपक गया। घेंचू चिल्ला पड़ा।
‘सत्त गुरु की, महाराज ? सत्त गुरु की !’
‘तूने मेरे कहने पर तिरिया का त्याग तो कर दिया, पर वह साहब की है, उसे साहब को दे दो ! धरोहर साधू कभी नहीं धरता। पर साहब भी क्यों लेगा उसे, साहब भी....।’ बाबा चीख उठे, ‘वह इस समय उस वनमानुस गड़रिये के साथ सो रही है !’
‘सच महाराज ?’ घेंचू जैसे होश खोता जा रहा था।
‘और नहीं तो क्या झूठ बोलेगा, साधू ? यह दिव्य-दृष्टि सब देख रही, चल-अचल, सब। देख-देख, वह दोनों गुलछर्रे उड़ा रहे हैं, हा-हा-हा-ऽऽऽ!’ बाबा की अँगुलियाँ संकेत के लिए उठी रहीं और घेंचू की आँखें अँधेरे चट्टान से टक्कर मारती रहीं। तभी बाबा ने धूनी से सँड़सा निकाल घेंचू के हाथ में थमाते हुए कहा, ‘ले इसे, बालक !’ उनकी आवाज बढ़ती जा रही थी, ‘यह साहब का हथियार है। उसकी पीठ पर इससे एक दाग बना कर उसी के हाथ साहब का दंड वापस कर और वहाँ बैठ कर उसके लौटने का इन्तज़ार कर। परम अवसाद तेरे पास पहुँच जाएगा। यह धूनी उसके पापों को जला कर छार कर देगी। इस अँधेरे पर साहब की सवारी है, घेंचू !’
घेंचू अगियाबैताल की तरह अँधेरे में खो गया। घूरे बाबा ने गरदन इधर-उधर झटकारी। हाथों को ढीला किया और कमर में बँधी मूँज की मोटी रस्सी की हुण्डीदार गाँठ खोल दी।
घूरे बाबा की धूनी बुझ गयी,—दूसरे दिन सुबह गाँववालों के मुँह पर यही बात थी।
-शरम की बात है हमारे गाँव के लिए। हम लोग कल लकड़ी नहीं जुटा सके।
बाबा कहते हैं, ‘कोई राज-विग्रह होगा या महामारी फैलेगी। तेज की अगिन कैसे बुझ गयी ? तुम लोग नादान हो, जो लकड़ी की कमी की बात सोच कर पछता रहे हो। इस धूनी में तो माटी जलती है, हवा जलती है, आकाश जलता है, पाँचों तत्त्व जलते हैं, जिसे यह गुरु का सँड़सा छू दे, वही जल कर छार हो जाता है।’ घूरे बाबा घूर कर महिला दर्शनार्थियों की ओर देखते हैं।
....पुत्र की कामना...! बुझी हुई, भारी-भारी-सी, भूखी....
....पति की कामना !....चपल, लोलुप, पियासी....
...धन की कामना !.....उदास, रसहीन, मुर्दा....
...रोग मुक्ति की कामना !....बीमार पीली-पीली....
बाबा उखड़ जाते हैं। पद्मासन को और भी चुस्त बना लेते हैं और अपनी नाभि पर दृष्टि जमा, सुन्न हो जाते हैं। सब लोग हाथ जोड़ लेते हैं।–गये समाधि में बाबा !
प्रायः ऐसा ही होता है। बाबा बोलते-बोलते चुप हो जाते हैं। धीरे-धीरे झरबेरी का वह अद्भुत निकुंज सूना हो जाता है। बस, सँड़से के दाग से पीठ पर लाल-लाल, लम्बी पट्टी की तरह का घाव लिये झबरा और हाथों में साधु की धूनी का प्रसाद सँभाले घेचूँ : गदोरियाँ फूल कर गुब्बारा हो रही हैं। गहरे बुखार में शरीर झुलस रहा है, जैसे जड़ काट कर कोई हरा-भरा पेड़ जमीन में गाड़ दिया गया हो और सूरज की तेज रोशनी में उसकी पत्तियाँ, कोमल टहनियाँ मुरझा कर लटक गयी हों। साधू इसी को कहते हैं, जब वह ठूँठ की तरह सूख जाए, धरती से रस-ग्रहण करना बन्द कर दे।
कल ही सुबह बाबा ने सुखी को पहली बार देखा था—काली भुजंग, बड़ी-बड़ी आँखोंवाली, सलोनी तिरिया, छरहरा, धनुष की तरह लचीला बदन, साँप की तरह चिकनाई....और वह क्या नहीं देख सकते थे, घूरे बाबा ठहरे, कोई मामूली साधू संन्यासी तो नहीं। उनके जलते हुए अंतर में सुखी के मोहक रूप और नसीली आँखों ने आग का सूजा घुसेड़ दिया था।
बाबा दिन-भर बेचैन रहे। उनके सीने में असंख्य चीटियाँ काट रही थीं और बार-बार उन्हें अपने गुरु का ध्यान हो आता था, साधु के लिए कुछ असम्भव नहीं। वह जो चाहे कर सकता है।
घूरे बाबा का प्रयोग भी सफल हुआ।
घेंचू कल रात भूत की तरह दौड़ता घर पहुँचा था। सुखी चौखट से उठँगी, पैर फैलाये, मोहनी की तरह मदन के लिए जाग रही थी।
हवा के सर्द झोंके सुखी के सीने में आज गुदगुदी पैदा कर जाते थे, इसलिए पुवाल की गर्मी में सोकर वह आज की रात भी खोना नहीं चाहती थी। बाबा के यहाँ कल सुबह पहली बार गयी थी। पुत्र भी बाबा की कृपा से मिल सकता है। पूरे चार महीने का बदला वह आज लेती घेंचू से, संन्यासी की सोहबत आज उसे खल रही थी, लेकिन सहसा इस बालक संन्यासी के हाथ में सँड़सा देख कर वह चौंक पड़ी। काली मकोय-सी पुतलियाँ आँखों की विस्तृत सफेदी में नाच उठी थीं ! क्षण-भर घेचूं सहमा था....पर सात समुन्दर पार साहब के देश में तुम्हारा महल बन गया...देख, देख, वह गुलछर्रे उड़ा रही है...और सामने बैठी सुखी के बाल घेंचू की मुट्ठियों में आ गये थे, पर निशान तो उसे...
धूनी की आग ही नहीं, कंकड़ की चिलम भी ठंडी पड़ गयी थी उस रात। बाबा का रोम-रोम गरमाई से टहक गया था। नस, नस में चिपक गयी थी। पाप जल कर छार हो गये थे।
आज घेंचू मन मारे बैठा है। लोगों के उठ कर जाते ही बाबा का ध्यान भंग हो गया और वह कंकड़ की चिलम अपने हाथ ही से खुरचने लगे हैं।
‘खालिस गांजा कभी पिया है, घेंचू ? रात-रात भर भजन के लिए तपसी सूखा गाँजा पीते हैं।’
‘नहीं, किरपानिधान !’
‘तो आज पियो। धोकर बनाता हूँ गाँजे को।’
‘अपने हाथ से, प्रभु ! लोक में हँसी होगी !’
बाबा हँसे, ‘लोक में ?....साधू का कोई लोक नहीं होता।’ और थैली से गाँजे का चिप्पड़ निकाल कर हथेली पर मलने लगे।
‘तेरी तो गदोरी ही ले ली साहब ने, लेकिन वह बहुत कुछ देगा इसके बदले, घेंचू, बहुत कुछ। सुदामा के दो मुट्ठी चावल खाकर।....बाबा ने चिलम भर ली और दो बार हवा में झुला कर घेंचू के आगे करते हुए कहा, ‘तू ही लगा भोग ! अब थोड़ी ही कसर है तेरे जती होने में !’
‘नहीं महाराज, हम तो चरन-सेवक हैं !’ घेंचू के होंठ सूख रहे थे और बुखार की ज्वाला में सारा शरीर तप रहा था।
सूरज की रोशनी झरबेरी की छत पर पसरी हुई थी और कहीं-कहीं किरणें निकुंज को बेध रही थीं। झबरा अपनी दोनों टाँगों पर गरदन फैलाये बाबा का मुँह ताक रहा था। घेंचू की दृष्टि रह रह कर उसकी पीठ के उचरे हुए चमड़े पर टिक जाती थी और सुखी को बड़ी-बड़ी आँखों का दुख, क्रोध और विस्मय-भरा-निश्चय...वह अपने मन को दबाकर गाँजे की चिलम हाथ में लेता है, लेकिन मुट्ठी बँधे तब न ! एक हाथ से चिलम पकड़ के हलकी-सी फूँक देता है और चिलम बाबा को फेर देता है। बाबा सुर्र् करके खींचते हैं। चिलम उलटते हैं, गाँजा रखते हैं, फिर खींचते हैं—लगातार चार चिलम ! फेर घेंचू की हथेली अपने हाथों में लेकर फटी-फटी आँखों से देखते रह जाते हैं। सहसा सुखी का चेहरा उन्हीं हथेलियों में उग आता है और उनका सारा शरीर तमतमा कर अकड़ जाता है। लगता है, कमर में बँधी मूँज की रस्सी तड़तड़ा कर टूट जाएगी।–नारी भोग है !...उन्हें अपने गुरु का ध्यान हो आता है और वह उत्फुल होकर चीखने लगते हैं, ‘सत्त गुरु की, घेंचू ! सत्त गुरु की....!’
घेंचू किसी तरह अपने पपड़ियाहे होंठ खोलता है, ‘‘सत्त गुरु की....!’
‘आज गढ़ी की बारी है, न घेंचू ?’ बाबा पहली बार खाने की बात पूछते हैं, ‘अच्छा भोग आता है उनके यहाँ से। रतनजोत आती ही होगी नौकरों के साथ !’
‘हाँ, महाराज, बड़े पुण्यात्मा हैं, मालिक !’
‘मालिक कहता है बुद्धू, जती हो कर ? मालिक तो अब तू है, तू !’ बाबा की अँगुलियाँ अब घेंचू के मुँह के पास पहुँच गयी हैं। तू चाहे तो रतनजोत तरी दासी बन जाए, दासी !’
‘क्या कहते हैं, प्रभु !’
‘सच कहता हूँ, बुद्धू ! तिरिया और भूँय पौरुख की हैं, पौरुख की !’
बाबा और कुछ कहते-कहते रुक जाते हैं, उन्हें अपनी ही ही बीबी का खयाल हो आया है।–साहब किस तरह उसे आफिस भेज कर खुद बँगले ही में रुक जाया करते थे और बार-बार दौरे पर जाने वाले लोगों के साथ उसे भेज दिया करते थे। वह तो उस दिन गाड़ी छूट जाने के कारण घर लौटा, तो कोठरी में ताला बंद। दूसरे दिन उसे जान से खत्म करा देने की तैयारी, अपनी ही बीवी की सलाह से। लेकिन वाह रे घूरे बाबा ! उनके चेहरे पर प्रतिहिंसा की धूप छिकट आयी है। रतनजोत तुम्हें कलेवा लेकर आती है। बड़े-बड़े घर की तिरिया तुम्हारे तलवे धूल पोंछ कर संतान की भीख माँगती हैं।–बाबा इधर-उधर देखते हैं। अभी रात की तेल गरम करने वाली कटोरी धूनी के पास ही पड़ी है। और गर्व पुलकित सँड़सा लकड़ी की एक गाँठ के सहारे सीना ताने ऊठँघा है। बाबा रात उसे तोड़ फेंक देना चाहते थे....पर सुखी ?
--अहो भाग्य महाराज, दासी की अरज है यह !
बाबा सँड़से को उठाकर लकड़ी की झँवाई गाँठ को ठोकने लगे। आग की झुर्रियाँ छूटने लगीं और एक से दूसरी, तीसरी बनती गयीं। घेंचू आँख उठाकर ऊपर देखता है, बेल की पत्तियाँ झुलस चली हैं और हवा के चलने से कभी-कभी टूट कर गिर पड़ती हैं।
घूरे बाबा का यह अनोखा मठ लोक-प्रसिद्ध है। उनके महातम की कहानियाँ कही जाती हैं और एक नहीं पचीसों उन कहानियों के चश्मदीद गवाह मिल जाते हैं, जो हर बात को अपने ही आगे हुई बताते हैं।
बाबा रात की चुड़इनियों के तालाब के ऊपर पलत्थी मार कर बैठ जाते हैं और डाइनें उनके पाँव पखारती हैं। नहीं तो थी किसी की हिम्मत उधर झाँकने की रात को ! गढ़ी का छोकरा घोड़ा समेत वहीं डर कर मर गया। डाइनें उसके कलेजे का खून चूसकर पी गयीं। अब तो रतन-जोत रात-बिरात नौकरों को ले कर बाबा का भोग लगाने पहुँच जाती है।
सुखी रात मठिया में होती है और औरत भक्तों को साधारण मनाही कब रोक सकी है ! बाबा को विघ्न का डर है, इसलिए उन्होंने अपने तेज की वृद्धि के लिए शव-साधना की भयानक क्रिया प्रारम्भ कर ली है।
बाबा आज-कल शव-साधना कर रहे हैं। रोज रात मर्दहवा घाट जा, मुर्दे की लाश पकड़ कर मन्त्र का जाप करते हैं। दारू से नहाते हैं। मुर्दे के मांस का भक्षण करते हैं। रात को भक्त मठिया पर नहीं जाते।
सवेरे कभी आदमी की खोपड़ी, कभी हाथ-पाँव की सूखी हड्डी झरबेरी के एक कोने में पड़ी मिलती है। लोग दंग ! इस त्रिकालदर्शी बाबा का एक वाक्य कुछ-कुछ कर सकता है। बड़े-बड़े ठाकुरों के नौजवान लड़के पेड़ की मोटी-मोटी सिल्लियाँ जोरई से ढोते हैं। बड़े घरों की स्त्रियाँ बाबा की एक बात के लिए, उनके चरणों की एक धूल कण के लिये तरसती रहती हैं। दूर-दूर के लँगड़े-लूले अपाहिज आते हैं और बाबा की धूनी की खाक से चंगे होकर लौट जाते हैं। सूरज डूबते ही डाकिनी का आह्वान होता है और घेंचू आसमान की ओर मुँह उठा जोर से तुरही फूँकता है। लोग सन्न हो जाते हैं। डर के मारे औरतें काँपती, अपने बच्चों के लिए ईश्वर से प्रार्थना करती हैं।
--अब कोई सिवान में कदम नहीं रखेगा। मठिया में प्रेत-साधना करते हैं, बाबा ! नहीं तो इतना जस कैसे रहे ! रात को बस बम् भोले...बम् भोले...सत गुरु की, आवाज सुनाई पड़ती है।
सुखी निखर आयी है। कमर की हड्डियाँ थोड़ी चौड़ी-चौड़ी हो गयी हैं। आँखों के नीचे का अस्थि-भाग चिकना हो गया है।
समय के खेल में आदमी कैसा बदल जाता है। सुखी थोड़ा झुककर चलती है। मदिरा का भभका चलता है, उसके घर। खाने-पीने की क्या चिन्ता। दूध से मलाई छान कर नीचे का दूध बाबा के आगे डाल देती है और बचा-खुचा हलुआ घेंचू और कुत्ते को। बाबा उससे डरते हैं। स्त्रियों को भभूत देते हुए, सुखी पर निगाह पड़ते ही उनका हाथ काँपने लगता है, पसीना छूटने लगता है।
साहब का चिमटा अब घेंचू के हाथ में रहता है। भोग की थाली अब वही ग्रहण करता है। ऐरे-गैरे रोगियों को अब घेंचू के हाथ की भभूत ही चंगा कर देती है। बस, विश्वास नहीं है तो एक रतनजोत को उस पर और घूरे बाबा यही चाहते हैं कि सुखी बाबा और घेंचू दोनों को खूब जान गयी है।
झरबेरी के पत्ते पीले होकर गिर गये हैं। बस, डालें और नुकीली टहनियाँ, जिनमें काँटे। चाहे फिर नयी पत्तियाँ आएँ और यह दैवी गुंबद ढँक जाए उनसे, पर अभी तो इसकी चुभन बनी हुई है।
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